Wednesday, March 14, 2012

Tum Kalpana Karo

Another one of those "gems" - greatly loved, long lost, frantically searched, and thankfully found!

तुम कल्पना करो

  - गोपाल सिंह नेपाली


तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।

अब घिस गईं समाज की तमाम नीतियाँ,
अब घिस गईं मनुष्य की अतीत रीतियाँ,
हैं दे रही चुनौतियाँ तुम्हें कुरीतियाँ,
निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए,
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो,
तुम कल्पना करो।

ज़ंजीर टूटती कभी न अश्रु-धार से,
दु:ख-दर्द दूर भागते नहीं दुलार से,
हटती न दासता पुकार से, गुहार से,
इस गंग-तीर बैठ आज राष्ट्र-शक्ति की,
तुम कामना करो किशोर, कामना करो,
तुम कामना करो।

जो तुम गए, स्वदेश की जवानियाँ गईं,
चित्तोर के 'प्रताप' की कहानियाँ गईं,
आज़ाद देश-रक्त की रवानियाँ गईं,
अब सूर्य-चंद्र से समृद्धि ऋद्धि-सिद्धि की,
तुम याचना करो दरिद्र, याचना करो,
तुम याचना करो।

जिसकी तरंग लोल हैं अशांत सिन्धु वह,
जो काटता घटा प्रगाढ़ वक्र इन्दु वह,
जो मापता समय सृष्टि-दृष्टि बिन्दु वह,
वह है मनुष्य जो स्वदेश की व्यथा हरे,
तुम यातना हरो मनुष्य, यातना हरो,
तुम यातना हरो।

तुम प्रार्थना किए चले, नहीं दिशा हिली,
तुम साधना किए चले, नहीं निशा हिली,
इस आर्त दीन देश की न दुर्दशा हिली,
अब अश्रु-धार छोड़ आज शीश-दान से,
तुम अर्चना करो, अमोघ अर्चना करो,
तुम अर्चना करो।

आकाश है स्वतंत्र, है स्वतंत्र मेखला,
यह श्रृंग भी स्वतंत्र ही खड़ा, बना, ढला,
है जलप्रपात काटता सदैव श्रृंखला,
आनन्द-शोक जन्म और मृत्यु के लिए,
तुम योजना करो, स्वतंत्र योजना करो,
तुम योजना करो।

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